कविवार (My Sunday Poetry)

दिन के नसीब में ही नहीं था कभी मिलन रात से
इस शाम में उसकी धुँधली-सी कसक उभर गई

वह जो बात रही अधूरी इस जिंदगी के भँवर में
उसकी ठंढी छाया सपना बन आँखों में ठहर गई

ये रेत हैं किनारों के जो प्यासे हैं कई-कई युगों से
ये बात और है इनके बगल से एक नदी गुजर गई

वो जिन्हें हमने यूँ ही बिन सोचे अपना मान लिया
वे दिल में उतरे बाद में,पहले उनकी बातें उतर गईं

रस्ते कहीं बने होते हैं नहीं, रस्ते तो बनाए जाते हैं
मंजिल बस वहीं पर ठहरी है,तेरी नजरें जिधर गईं!

कविवार (My Sunday Poetry)

ये रास्ते, वो मंजिल, वे सारे ख्वाब पुराने हुए
इन इरादों के ठहरने के कुछ और ठिकाने हुए

जो लकीर खींच रखी थी जमाने ने हमारे लिए
उस लकीर को छोड़े हुए हमें कई जमाने हुए

जबसे हमने सीख लिया मन की बातें छिपाना
तबसे लोग सारे कहने लगे, हम अब सयाने हुए

उनसे मेरा रिश्ता क्या है, कैसे बता दूँ उन्हें भला
कुछ रिश्ते न कभी अपने हुए,न कभी बेगाने हुए

हमने नजरों को देखने का नजरिया बदला जरा
ये झुलसते पथरीले राह,फूलों के पथ सुहाने हुए!

कविवार (My Sunday Poetry)

हर कहानी के पीछे छिपी एक और कहानी है
कुछ समझ में आई,कुछ अब भी अनजानी है
तुम तोल पाओगे नहीं मेरी अनकही गहराइयाँ
तुमने मेरी खुशी तो देखी मगर मेरा दर्द न पूछा।

कुछ खिली कलियाँ हैं,कुछ फूल मुरझाए हुए
इन डालियों पर अनोखे रंग हैं कुछ छाए हुए
इन भ्रमरों ने किया है केवल बेसुध रसपान ही
तुमने ये श्रृंगार तो देखा मगर उसका भार न पूछा।

ये मेघ जो बरसे उनमें कोई कसक पुरानी होगी
कोई बात ऐसी होगी जो धरा को सुनानी होगी
ये पवन जो गीला-सा है बूँदों के तरल स्पर्श से
तुमने उसकी ये तृप्ति तो देखी मगर प्यास न पूछा।

वो जो हँस लेते हैं,स्थिर रहते हैं हर झंझावात में
जो सहज-से रह जाते हैं हर ऊँची-नीची बात में
उनके ह्रदय में भी उमड़ती होंगीं कुछ बेचैनियाँ
तुमने उनका यह मौन तो देखा मगर उद्गार न पूछा।

कविवार (My Sunday Poetry)

ठहरी हुई हसरत कुछ और सफर करती है
तुम्हारी मौजूदगी इतना तो असर करती है

तेरी परछाइयों से ही मैंने वक्त को मापा है
यही मेरी शाम,सुबह और दोपहर करती है

यूँ तो चाहता नहीं तेरी यादों से परेशान होना
मगर जाने क्यूँ ये परेशान इस कदर करती है

वो जिसका होना तुमने बेकार समझा है सदा
संभव है,उसकी हस्ती ही घर को घर करती है

लोगों को पहचानना बहुत मुश्किल भी नहीं है
उनके बातों की अदा इरादों की खबर करती है!

कविवार (My Sunday Poetry)

श्रवणकुमार के अंतिम शब्द

इस अलक्षित बाण से किया अकारण घात, चलो इसे भी नियति माना
किंतु,हे राजपुरुष! मेरे प्यासे माता-पिता को थोड़ा नीर पिलाते जाना।

वे दोनों हैं नेत्रहीन, नहीं सकते कुछ देख
कैसे सह सकेंगें युवा पुत्र का मृत्यु-संदेश
उनकी पीड़ा के आगे कुछ नहीं मेरी पीड़ा
कहीं प्राण न हर ले उनका असह्य क्लेश

पहले प्यास बुझा देना दोनों की फिर जो भी है सच, बतलाना
हे राजपुरुष! मेरे प्यासे माता-पिता को थोड़ा नीर पिलाते जाना।

उनसे ये कहना,मैं था उनका पुत्र हतभाग्य
पूरी कर न सका उनकी आस तीर्थाटन की
जो एक साध थी माता-पिता की पद-सेवा
वह साध अब अधूरी ही रह गई मेरे मन की

तुम्हारे इस अविचारित कर्म का जाने क्या मूल्य पड़ेगा चुकाना
हे राजपुरुष! मेरे प्यासे माता-पिता को थोड़ा नीर पिलाते जाना।

मैं छोड़ आया हूँ वन-सघन के मध्य उन्हें
वे कुछ श्रांत,विकल,आशंकित,कातर होंगें
पुत्र की परिचित पदचाप सुनने को अधीर
वे क्षण-क्षण,निरंतर बहुत ही चिंतातुर होंगें

यदि हो सके तो अपनी पदचापों के स्वर को उनसे जरा छिपाना
हे राजपुरुष! मेरे प्यासे माता-पिता को थोड़ा नीर पिलाते जाना।

अब और नहीं कुछ कहा जा रहा है मुझसे
भंग-सी हो रही है साँस, छूट रही है काया
यह जीवन उस माता-पिता को ही अर्पित
जिनके कारण मैंने ये जीवन अपना पाया

उन दोनों के परम पावन चरणों में मेरा अंतिम प्रणाम पहुँचाना
हे राजपुरुष! मेरे प्यासे माता-पिता को थोड़ा नीर पिलाते जाना।

कविवार (My Sunday Poetry)

दिन निकलता गया,धूप पिघलती रही
देहरी पर ये एक ज्योति भी जल गयी
कुछ कहना रहा और कुछ सुनना रहा
बात बाकी ही रही, शाम भी ढल गयी!

पहले से ही तो ये पर्वत थे कठोर बहुत
इन पत्थरों में ये कैसी कसक रह गयी
कुछ बूँदें पिघलीं इनके सीने से विवश
और देखते-देखते एक नदी बह गयी!

ये सुना है कि जब मैं सोया था रातों में
ओस की बूँदें कुछ वसुधा पर उतर गयीं
कुछ बताया नहीं और कुछ सुनाया नहीं
एक किरण छू गयी, वाष्प बन उड़ गयीं!

वे कहते हैं कि अर्थ कभी जान पाते नहीं
सोचा चाहे इन सब बातों को कितना ही
इन बातों का प्रिये, अर्थ कुछ भी है नहीं
इस जीवन का पूरा सार है बस इतना ही!

कविवार (My Sunday Poetry)

तुम्हें हृदय की कल्पना तो कह दूँ मगर
मेरा सत्य भी तुमसे कुछ ज्यादा नहीं है

तुमको वेदना का नाम तो दे भी दूँ मगर
इस वेदना को छोड़ने का इरादा नहीं है

तुमने सीखा बहुत दृष्टि से ओझल होना
मगर तुमने इस मन को तो बाँधा नहीं है

इन जागती इच्छाओं के नियम कठिन हैं
लेकिन सपनों की तो कोई मर्यादा नहीं है

तेरी-मेरी पूर्णता एक-दूसरे से ही पूर्ण है
तेरा सच पूरा है तो मेरा भी आधा नहीं है

तुमसे मिलेंगे कभी गगन के उस छोर पर
मिलन की धारणा है ये कोरा वादा नहीं है !

कविवार (My Sunday Poetry)

जिन मंजिलों को सोचना भी मुश्किल
हम बिल्कुल वहीं तक जाकर लौटे हैं

कुछ समय की लहरों ने समझा दिया
कुछ हम खुद को समझा कर लौटे हैं

रेतीली राह पर उनके पाँव ना झुलसें
हम उस राह पर आँसू बहाकर लौटे हैं

उन्हें हो ना शिकायत राज छिपाने की
हम दिल का हर हाल सुनाकर लौटे हैं

मुझे विश्वास है, मेरा विश्वास नहीं टूटेगा
हम उन्हें हर तरह आजमा कर लौटे हैं

कहीं मिले वे तो उन्हें अजनबी न कहना
हम उन्हें हद तक अपना बनाकर लौटे हैं

वो जब पुकारें हम चले जाएँगें उन तक
हम तो लौटने की कसम खाकर लौटे हैं !

कविवार (My Sunday Poetry)

बहुत पास कहीं कुछ छूट गया है !

कभी समय की इस तरंग से टकराकर
कभी जर्जरता के सब चिन्ह छिपाकर
जो बाहर से जितना सँवरा हुआ है
उतना ही भीतर-भीतर टूट गया है
बहुत पास कहीं कुछ छूट गया है !

वैसे, वो कुछ कहे बिना रह पाते नहीं हैं
मगर हम पूछ लें तो कुछ बताते नहीं हैं
बस इतना ही कहना है,प्रियतम मेरा
मुझसे कुछ कहे बिन ही रूठ गया है
बहुत पास कहीं कुछ छूट गया है !

जाने किन चंचल धाराओं में बहने लगे
हम जितना थे, उससे ज्यादा कहने लगे
अब समझा जो कुछ देने आया था
दिया वो कम है, ज्यादा लूट गया है
बहुत पास कहीं कुछ छूट गया है !

कुछ बिखर गए और कुछ निखर-से गए
कुछ आँसू बन इन आँखों में ठहर-से गए
कभी कुछ ठोस जम गया दरारों में
कभी आशा का निर्झर फूट गया है
बहुत पास कहीं कुछ छूट गया है !

कविवार (My Sunday Poetry)

ये बात और है कि वो बहुत अपने भी नहीं लगते
मगर पहले की तरह अब वे अजनबी नहीं लगते

जिस दर्द की दवा नहीं उससे दोस्ती ही अच्छी है
हर वक्त आँसू गिराने के कायदे सही नहीं लगते

उन छोटी बातों में ही छिपा था राज बड़े होने का
जो छोटे हो नहीं सकते,वे बड़े आदमी नहीं लगते

हम हम हैं, तभी हम हैं, तुम तुम हो, तभी तुम हो
इसके बिना हम हम नहीं, तुम तुम ही नहीं लगते

जो पल बीत रहे, जिंदगी बस उतनी ही जिंदगी है
बीते हुए लम्हे सपने लगते हैं, जिंदगी नहीं लगते !

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