बाजार में तुम दो पल ठहर कर देख लो हमकोआज हम भी इस शहर में जरा मशहूर हो जाएँ तेरे चेहरे से जुल्फें हटाना हमारा कसूर ही सहीये कसूर एक बार कर लें, फिर बेकसूर हो जाएँ हर हार एक और कोशिश करने का ही इशारा हैन जाने किस कोशिश में अर्जियाँ मंजूर हो जाएँ …
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कविवार (My Sunday Poetry)
ये कैसा बीसवां साल लगा ! न सपनों का व्यापार हुआन उत्सव, न त्यौहार हुआन बाजारों में मेले ही दिखेना ही झूलों का जाल लगाये कैसा बीसवां साल लगा ! न सफर हुआ,न सवारी चलीन द्वार खुले,न खिड़की खुलीबच्चों के शोर-शराबे के बिनाये मोहल्ला बेजार,बेहाल लगाये कैसा बीसवां साल लगा ! वो मिले कभी तो …
कविवार (My Sunday Poetry)
जो भस्म की भंगिमा में भी भुवन भर का दाह हर लेशिव वही हैजो गर्हित गरल भी सहज अपने ग्रीवा के मध्य धर लेशिव वही है। जिसको गिरि-पाषाण-कंदर-सघन-बीहड़ भी महल होशिव वही हैज्ञान की गंगा अकंप भाल पर धारण करने का बल होशिव वही है। जिसे भूत-पिशाच-विषधर, जीव-वंचित सहज प्रिय होशिव वही हैजो साधना के …
कविवार (My Sunday Poetry)
तुम मेरी वेदना के तार छू लो,मैं तेरे सुख का तान छेड़ूँइस प्रेम का पूरा भार एक बूँद आँसू से ज्यादा नहीं है जहाँ छाँव-धूप दोनों मिले हैं,उस साँझ को क्या नाम दूँवहाँ रात भी आधी नहीं है, दिन भी वहाँ आधा नहीं है तुम्हें भरम होगा कि तुमने समझ लिया है मुझको पूराअभी तो …
कविवार (My Sunday Poetry)
ये लोग जिंदगी से जाने कितना ज्यादा चाहते हैंशीशे के मकान में बैठे हैं फिर भी पर्दा चाहते हैं एक भूल छिपाने के लिए उन्होंने भूल दूसरी कीऔर अपने इस हुनर की बड़ाई बेइंतहा चाहते हैं उन्हें ये डर भी है कि वे हों न जाएँ कहीं बदनामफिर भी सुना है,इश्क करने का तजुर्बा चाहते …
कविवार (My Sunday Poetry)
नैन मिलाए बिना हमसे बोलो न कुछदिल में क्या है तेरे,ये पता चलता नहीं हमारी हसरतों को वो सम्भालेंगे क्याजिनसे खुद का दुपट्टा सम्भलता नहीं मर गए हैं तो पूछते हो,हुआ क्या तुम्हेंपहले पूछ लेते तो दम निकलता नहीं एक-न-एक रोज ये बात खुल जाएगीमेरे बिना उनका भी मन बहलता नहीं जिन्हें चमकना है वो …
कविवार (My Sunday Poetry)
हिमालय के पश्चिम में कुछ गीदड़ पहले से ही टहलते थेअब सुना है, पूरब से सियारों की एक टोली नई आयी हैवे क्या आँख दिखाएँगे जिनकी आँखें ही नहीं खुलती हैंउधर कायरता है, जड़ता है, इधर पराक्रम है, तरुणाई है। जो छिप-छिप कर लड़ते हैं,वे सच है कि मरने से डरते हैंजहाँ मृत्यु का भय …
कविवार (My Sunday Poetry)
वे दिन भी क्या दिन थे, जब हम उनको चिठ्ठी लिखते थेकुछ उनका हाल पूछते थे,कुछ अपने दिल की लिखते थेवे दिन भी क्या दिन थे, जब हम उनको चिट्ठी लिखते थे ! वो कागज से आती खुशबू, वो शब्दों का ताना-बानाकुछ बिन सोचे लिखना, कुछ लिख कर रुक जाना निर्जीव पन्नों पर एक धड़कती …
कविवार (My Sunday Poetry)
जबसे मेरी उनसे कुछ-कुछ पहचान हो गयी हैतबसे मुझे वे और भी ज्यादा अनजाने लगते हैं अपने मन से तो वो बहुत कुछ कहते हैं मन कीहम कुछ पूछ लेते हैं तो वो बातें बनाने लगते हैं एक बार आँखें ही मिला लो तो करार मिल जाएहमें मालूम है, दिल मिलने में तो जमाने लगते …
कविवार (My Sunday Poetry)
वे इसी शहर में रहते हैं, मगर हमसे मिला नहीं करते ! यूँ तो हम इन बातों का कभी किसी से गिला नहीं करतेमगर वे इसी शहर में रहते हैं और हमसे मिला नहीं करते! लोगों से सुना है वे हमसे नाराज रहते हैं बहुत ही ज्यादालेकिन इस नाराजगी का वे हमको ही इत्तला नहीं …