आँखें वही रहती हैं, बस स्वप्न सलोने बड़े हो जाते हैं
हम बड़े नहीं होते हैं, हमारे खिलौने बड़े हो जाते हैं।
गुड्डे-गुड़ियों का जब खेल गया
तब हम बस्ते-किताबें थाम चले
फिर रूप-लवण की प्यास जगी
फिर धन-दौलत के अरमान पले
मन में इच्छाएँ भर लेने के बस कोने बड़े हो जाते हैं
हम बड़े नहीं होते हैं, हमारे खिलौने बड़े हो जाते हैं।
जो बचपन में गेंदों की लड़ाई थी
वो राह के भागमभाग में बदल गई
जो पल में रूठते,पल में मानते थे
वो आदत राग-विराग में बदल गई
कामनाओं के ज्वार फैलने के बिछौने बड़े हो जाते हैं
हम बड़े नहीं होते हैं, हमारे खिलौने बड़े हो जाते हैं ।
जितना ऊँचा बढ़ता है कोई पौधा
जड़ उसकी उतनी नीची जाती है
फिर क्या बढ़ना और क्या घटना
ऊपर नभ है और नीचे बस माटी है
मोर के पंख के साथ ही पैर, घिनौने बड़े हो जाते हैं
हम बड़े नहीं होते हैं, हमारे खिलौने बड़े हो जाते हैं।