कविवार (My Sunday Poetry)

आँखें वही रहती हैं, बस स्वप्न सलोने बड़े हो जाते हैं
हम बड़े नहीं होते हैं, हमारे खिलौने बड़े हो जाते हैं।

गुड्डे-गुड़ियों का जब खेल गया
तब हम बस्ते-किताबें थाम चले
फिर रूप-लवण की प्यास जगी
फिर धन-दौलत के अरमान पले

मन में इच्छाएँ भर लेने के बस कोने बड़े हो जाते हैं
हम बड़े नहीं होते हैं, हमारे खिलौने बड़े हो जाते हैं।

जो बचपन में गेंदों की लड़ाई थी
वो राह के भागमभाग में बदल गई
जो पल में रूठते,पल में मानते थे
वो आदत राग-विराग में बदल गई

कामनाओं के ज्वार फैलने के बिछौने बड़े हो जाते हैं
हम बड़े नहीं होते हैं, हमारे खिलौने बड़े हो जाते हैं ।

जितना ऊँचा बढ़ता है कोई पौधा
जड़ उसकी उतनी नीची जाती है
फिर क्या बढ़ना और क्या घटना
ऊपर नभ है और नीचे बस माटी है

मोर के पंख के साथ ही पैर, घिनौने बड़े हो जाते हैं
हम बड़े नहीं होते हैं, हमारे खिलौने बड़े हो जाते हैं।

कविवार (My Sunday Poetry)

ये गलतफहमियाँ छोड़ दो कि मैंने तेरी सूरत को चाहा था
मैंने ये चेहरा नहीं, चेहरे में छिपी मासूमियत को चाहा था

तेरे तीखे नैनों से घायल हो जाऊँ, मैं इतना कमजोर नहीं
मैंने इन नैनों के पीछे छिपी सुनहरी नीयत को चाहा था

तुम्हें इतनी शिकायतें हैं, मुझे तुमसे बस एक शिकायत है
शिकायत नहीं,शिकायत न करने की आदत को चाहा था

तेरी इस चंचल चितवन से मेरा मन हुआ न कभी चंचल
मैंने चंचल बाधाओं में तेरे हँसने की तबियत को चाहा था

नफरत और मोहब्बत के परे एक रिश्ता होता है मोह का
इसी मोह के नाते से मैंने तुम्हारी शख्सियत को चाहा था

तुम मेरी जरूरत नहीं, तुम मेरी सबसे बड़ी हकीकत हो
मैंने जरूरत को नहीं बस अपनी हकीकत को चाहा था।

कविवार (My Sunday Poetry)

सुना है, ये इसी देश के वासी हैं
मगर मजदूर हैं,बस इसीलिए प्रवासी हैं !

इनके श्रम,इनके पसीने पर पूरा हक है हमारा
इनकी हड्डियों के पुर्जों से हमने गढ़े कारखाने
हमारे धन और ऐश्वर्य पर हक क्यों हो इनका
इनके पास जो है,ये जानें,इनकी किस्मत जाने!

हमारी ही सड़क के उस पार के झुग्गियों के निवासी हैं
मगर मजदूर हैं,बस इसीलिए प्रवासी हैं !

हमारी कोठियाँ, हमारे शहर इन्होंने ही बनाए
मगर कोई शहर, कोई घर अब इनका नहीं है
जिन्होंने पत्थर को चूर कर एक संसार रचाया
उस संसार में उन्हीं का एक भी तिनका नहीं है।

हमारी उन्नति के ये हम से भी अधिक अभिलाषी हैं
मगर मजदूर हैं,बस इसीलिए प्रवासी हैं !

बस दो वक्त की रोटी ही तो इनको चाहिए थी
उससे जाने कितना ज्यादा हमें इनसे मिला है
पैदा हुए,अस्थियाँ गलाईं फिर मर गए गुमनाम
इनकी जिंदगी का बस इतना ही सिलसिला है।

हमारी इच्छाओं के दास ये इसी धरा के अधिवासी हैं
मगर मजदूर हैं,बस इसीलिए प्रवासी हैं !

कविवार (My Sunday Poetry)

मुझे है विश्वास….सम्पूर्ण विश्वास
ये जो मेरी दुनिया है, ये बहुत प्यारी है
और ये कभी खत्म नहीं होगी।

बिना छुए यूँ ही नहीं गिर जाएँगे इन बागों के फूल
और इन वीरान पड़ी सड़कों पर
फिर से होगी रेलमपेल
फिर इन व्यस्त चौराहों पर कोई अचानक पकड़ कर हाथ
बहुत करीब आकर कानों में धीरे से कह देगा कोई बात !

इन बाजारों में फिर से होगा
सपनों का व्यापार
बच्चों के खेल, बुजुर्गों की बैठकें, कानाफूसी,
शिकायतें, ठिठोली, स्नेह,द्वन्द्व,मिलन, टकरार !

ये द्वार फिर से खुलेंगे
बिना टोके किसी को अंदर आने के लिए
क्योंकि अपनापन जताने का तरीका जरूर बदला है
मगर अपनेपन की परिभाषा अब भी वही है।

सुनो,ये जैसी भी है….अच्छी है,बुरी है
पापी है या पुण्य भरी है
मगर ये दुनिया है मेरी
अनादि है, अनंत है।
इन व्यतिक्रमों से न घबड़ाना, ये जाएँगे ही
नभ पर बादल,जल पर लेख कब टिके हैं भला !

इन चित्रपटों की रंगीन बुनावट बदरंग नहीं होगी
ये दुनिया है मेरी,ये बहुत प्यारी है
और ये कभी खत्म नहीं होगी।

कविवार (My Sunday Poetry)

सपनों के रास्तों से तुम मेरे मन के आँगन में आ जाओ
सुना है,इन दिनों शहर की सड़कों पर पाबंदियां बहुत हैं

तुमको सुनाने के लिए कोई बात नहीं है मेरे इस दिल में
तुम्हें सुन लेने को मेरे सीने के भीतर खामोशियाँ बहुत हैं

ये जमीं,ये आस्मां को रचने की भला जरूरत ही क्या थी
मेरे रहने के लिए तो तुम्हारी आँखों का आशियाँ बहुत है

जिंदगी तो बस वो है जो दूसरों की जिंदगी के काम आए
गिनने के लिए तो वैसे सारी दुनिया में जिंदगियां बहुत हैं

दूर इतना भी न जाना कि फिर पास आना न हो मुमकिन
नजदीकियों की रस्म न छूटे,बस इतनी ही दूरियां बहुत हैं !

कविवार (My Sunday Poetry)

आकाश अनत और दिशा अछोर,हाहाकार सागर-गर्जन
राम तपोलीन, बीते दिन तीन,करते तट पर पूजन-साधन
न गगन हिला,न ये अवनि डोली,तिल भर न डिगा समुद्र
ये उदधि अपार,हों कैसे पार,करें कैसे लंका-रावण-मर्दन

तनी भृकुटि राम की,’हे सौमित्र,लाओ धनुष,अक्षय तूणीर
ये अर्णव-प्रमाद करूँ भंग, चला कर अमोघ आग्नेय तीर
जग ने राम की केवल देखी है विनय ही,अब देखेगा कोप
कर संधान,एक ही बाण,सोख लूँ क्षण में सप्त-सिंधु-नीर’

‘त्राहि प्रभुवर’,बोला सागर,’इस जड़मति का तुम करो त्राण
मेरा है दोष,किन्तु जलचर निर्दोष,मत हरो तुम उनके प्राण
नल-नील दो वीर,वानर-दल बीच,हैं अति कुशल कर्मकार,
करें स्पर्श रघुवर, तिरेंगे पत्थर, करो मुझ पर सेतु-निर्माण’

दिखी विजय निकट,हर्षित सुभट,कर रहें हैं जय-जयकार
ऊर्जस्वित ह्रदय, साहस अजय,हो गया सहज सेतु-प्रसार
जो डरा नहीं,हारा नहीं,विकट संकट में भी न हुआ विकल
वह नर क्यों न हो राम,जिसके मन में हो ऐसा बल अपार!

कविवार (My Sunday Poetry)

सब कुछ समेटते हुए कहीं जिंदगी ही पीछे छूट गई थी
चलो आज सब छोड़ कर फिर से जिंदगी समेट लेते हैं

हमें जानने की फुर्सत न थी,कब दिन बीता,कब रात गई
अब छत पर बिछी थोड़ी धूप,थोड़ी चाँदनी समेट लेते हैं

सुख की चाह में निकले घर से और घर को ही भूल गए
ये बेहतर है घर के कोने में छिपी हुई खुशी समेट लेते हैं

एक झोंका आया और हवाओं के किले हवा में उड़ गए
अब इस हिस्से का कुछ आस्मां,कुछ जमीं समेट लेते हैं

वक्त ने ये सिखाया है कि वक्त से बढ़कर यहाँ कोई नहीं
कल की किसे खबर,जो समेटना है, अभी समेट लेते हैं !

कविवार (My Sunday Poetry)

हे भारत भूमि भास्वर, तुमसे जीवन उदय है
सृष्टि का अथ है, प्रलय पर सबल विजय है।

पालन का अनुशासन,व्रत-संयम-संसाधन
शुद्धि-सिद्धि की वृद्धि हेतु सजग समर्पण
तप की आभा,सुकृत पौरुष का दृढ़ निश्चय है
हे भारत भूमि भास्वर, तुमसे जीवन उदय है।

सात्त्विक भोजन,सात्त्विक चिंतन व साधन
सत‌ के बल से रजस, तमस पर आरोहण
जीने की कला का तू ही सनातन विद्यालय है
हे भारत भूमि भास्वर, तुमसे जीवन उदय है।

सकल जगत में जब छाया संकट-रोदन
इसी धरा से हुआ प्रसूत अमृत संजीवन
तेरे प्रज्वलित दीप से जगत-ज्योति अक्षय है
हे भारत भूमि भास्वर, तुमसे जीवन उदय है।

कविवार (My Sunday Poetry)

कुछ आपाधापी में शायद बड़ी दूर चले आए थे
अब वक्त कह रहा है,कुछ दिन ठहरो अपने घर में

अपने आँगन के कोने की छाँव में रुक लो जरा तुम
सुना है, इन दिनों खतरे बहुत फैले हैं सारे शहर में

ये पत्ते भूल गए,पुराना दरख्त ही उनका अपना था
जाने किस धुन में बह गए, हवा की चंचल लहर में

इन आँखों में सितारों की कुछ ऐसी चमक बसा ली
अपनी देहरी का दीप हमें कभी दिखा नहीं नजर में

अनजानों को भूल अपनों संग वक्त बिता लो थोड़ा
क्या पता,कल फिर वक्त मिले-न-मिले नए सफर में!

कविवार (My Sunday Poetry)

बल भी है,सामर्थ्य भी है,संयम भी,संघर्ष भी
वेदना की संवेदना है और संवेदना में हर्ष भी
इस संकट में शक्ति कहाँ जो दर्प तोड़े हमारा
हम उबरे थे,हम उबरे हैं,हम उबर जाएँगे।

प्रबल झंझावातों में भी नस में अपनी रवानी है
विपदाओं को दम से हराने की अपनी कहानी है
तनिक धीर धरो,उठने भी दो इन उग्र ज्वारों को
ये उतरे थे, ये उतरे हैं, ये उतर जाएँगे।

दुःख तोड़ता नहीं,मन की शक्तियों को जोड़ता है
गहन तम में भी ध्रुवतारा नभ को नहीं छोड़ता है
इन प्रकम्पित क्षणों की उम्र होती है छोटी बहुत
ये गुजरे थे,ये गुजरे हैं, ये गुजर जाएँगे।

सृजन का प्रक्रम अजर है,प्रलय की बिसात क्या
सबल जिजीविषा के आगे काल की औकात क्या
तन-मन को थाम लो, जो हाहाकार के तूफान हैं
ये ठहरे थे, ये ठहरे हैं, ये ठहर जाएँगे।

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