कविवार (My Sunday Poetry)

तुम एक कली पारिजात की
मैं एक भ्रमर राह भूला हुआ
तुम चाँदनी की अठखेलियां
और मैं हूँ विवश प्रतीक्षा भोर की !

तुम स्वप्न की हो झाँकी मदिर
मैं जड़ निद्रा अंतिम प्रहर की
तुम कामना की फलित सिद्धि
मैं मौन परिक्रमा साँसों के डोर की !

तुम प्रशांत लहरी सरिता की
मैं एक उछली चंचल बूँद हूँ
तुम मूर्त अनुभूति यथार्थ की
मैं हूँ कल्पना क्षितिज के छोर की!

किंतु मिलन की प्रथा अटल है
ज्यों अनंत में सब दिशाएँ एक
अपना एक अधिवास,भले ही
मैं कहीं और का,तुम कहीं और की !

कविवार (My Sunday Poetry)

कविवार

मन में थोड़ा धीर भरो, सारे बवंडर थम जाएँगें
रमते-रमते हम इस दौर में भी कभी रम जाएँगें

उनकी यादों को अब मैंने आदत में बदल डाला
अब ये यकीन है वे हमको याद जरा कम आएँगें

कुछ पल ऐसे गुजरे जो हृदय चीर कर गुजर गए
उन पलों में ऐसे रंग भरेंगें, वे फूल-से बन जाएँगें

वो जो बड़े लगते हैं,हमने भूल से उन्हें बड़ा माना
खुद का कद बढ़ा लें तो वे भी हममें सम जाएँगें

ये बस इस जीवन की ही नहीं,जन्मों की कहानी है
देखूँ,खुद को साबित करने में कितने जनम जाएँगें !

कविवार (My Sunday Poetry)

तुमसे चलकर तुम तक आए हैं
बस हम इतना ही चल पाए हैं

दिल की मंजिल उनका दिल है
नयनों ने बीच में रस्ते बनाए हैं

उन्होंने कहने को सब कह डाला
मगर कहे कम, ज्यादा छिपाए हैं

पगडंडियों के वे उजाले छूट गए
अब छत पर थोड़ी धूप उगाए हैं

वक्त कुछ वक्त में बदल लेता पाले
जो कल अपने थे, आज पराए हैं!

कविवार (My Sunday Poetry)

ये जानता हूँ तुम दिल मेरा इनकार कर दोगी
मगर एक बार तुमसे पूछने में हर्ज ही क्या है

वो हमें अपना न समझें ये उनका मामला है
हमें उनको अपना सोचने में हर्ज ही क्या है

इन हाथों में मिली लकीरों का जो इरादा हो
एक लकीर अपनी खींचने में हर्ज ही क्या है

माना कुछ स्वप्न वक्त की आँच में पिघल गए
एक स्वप्न फिर नया देखने में हर्ज ही क्या है

वो मनचाहा छतनार पेड़ किस्मत में हो,न हो
एक छोटा-सा पौधा रोपने में हर्ज ही क्या है !

कविवार (My Sunday Poetry)

इस बार अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदेगा भी और लौटेगा भी।

नियति ने गहन समर में कुछ जाल रचे अप्रमेय
खड़े सामने कर्ण, कृप, द्रोण और दुर्योधन दुर्जेय
आयु थोड़ी छोटी है मगर साहस की माप नहीं है
जहाँ हृदय में अभय बसा है, वहाँ संताप नहीं है

अभय हृदय का रथ अजेय बढ़ेगा भी और पहुँचेगा भी।

माता की कोख में पिता से सुनी अधूरी कहानी थी
उन्होंने उतनी बता दी थी जितनी उनको बतानी थी
उस टूटी कड़ी का केवल अगला सूत्र पिरोते जाना है
उत्तराधिकार सिद्ध नहीं,उस पर अधिकार जताना हैनव पौरुष अपनी नयी कथा रचेगा भी और कहेगा भी।

पिता दूर, तात चारों अब भी कुछ बाहर खड़े हुए हैं
जिनकी जितनी सीमा है, उतनी सीमा में पड़े हुए हैं
जो कुछ असीम की साध रखे वह नर अलबेला है
जयघोष को संसार खड़ा,फिर कौन यहाँ अकेला है योद्धा आज युद्ध अकेला लड़ेगा भी और जीतेगा भी।

यह सही है,जो सामने है, वह कुछ कठिन,दुष्कर-सा है
मगर जहाँ पर संघर्ष का ताप वहीं विजय-मेघ बरसा है
जिस समय ने व्यूह रचा,उसका करना बस मंथन भर है
यही समय अमृत उगलेगा, यह नियम अटल, अनश्वर हैसाधक अपना साध्य महान गढ़ेगा भी और पायेगा भी।

कविवार (My Sunday Poetry)

बह जाता है मेरे नीचे से हमेशा एक पूरा संसार
जब मैं किसी पुल से गुजरता हूँ
छिटक जाती हैं कितनी गलियाँ, चौराहे,घर-द्वार
जब मैं किसी पुल से गुजरता हूँ।

कुछ दूर के आशियानों तक पहुँच बनाने के लिए
कई पास वाले घरौंदे ही हो जाते हैं पहुँच के पार
जब मैं किसी पुल से गुजरता हूँ।

वे जो कुछ सतह के साथ तैरा करतीं है अनायास
अनसुनी रह जातीं वे ध्वनियाँ, वे आहट,वे पुकार
जब मैं किसी पुल से गुजरता हूँ।

मेरे अहसासों को जो सीधा तुम तक पहुँचा देता
काश कोई पुल ऐसा भी होता, सोचता हूँ हर बार
जब मैं किसी पुल से गुजरता हूँ।

ये दृढ़ खड़े खंभे एक लय,एक सूत्र,एक कतार में
इन रास्तों को ही नहीं, मन को भी देते हैं आधार
जब मैं किसी पुल से गुजरता हूँ।

कविवार (My Sunday Poetry)

हाँ, ये मालूम है कि ये पर्वत हिलेंगे नहीं अपनी जगह से
अपने हौसलों से इसे हिलाने की थोड़ी कोशिश तो करो

ये जो वक्त के दरवाजे हैं, माना ये खुले नहीं कई युगों से
इन्हें कभी धीमे से खटखटाने की थोड़ी कोशिश तो करो

वो जो नजरें चुरा लेते हैं तुमसे हर बार इन महफिलों में
उनसे फिर से नजरें मिलाने की थोड़ी कोशिश तो करो

खुद को भूल कर जो खुद को कम आँका करते हो तुम
कभी खुद को यहाँ आजमाने की थोड़ी कोशिश तो करो

ये जो उदासियों के बादल हैं, वे चाहे कितने भी सघन हों
एक बार हल्के से मुस्कुराने की थोड़ी कोशिश तो करो !

कविवार (My Sunday Poetry)

जिसे सहना कठिन था वह दुःख था
जो बिना बिताए बीता वह सुख था
जिसकी प्रतीक्षा थी,वह सहजता थी
जो इन सबके बीच है वह जीवन है।

जहाँ पर कोई चाह है वहाँ कामना है
जहाँ दग्धकारी ताप है वहाँ वासना है
जहाँ तर्कविहीन त्याग है वहाँ प्रेम है
इन सबका जो मिश्रण है वह हृदय है।

जो दयाजनित है वह द्रवित करुणा है
जो मोह जनित है वह शमित ममता है
जो शोकजनित है वह अमृदु संताप है
इनमें जो सार्वभौम है वह संवेदना है।

जो दो क्षणों के मध्य है वह अवकाश है
जो दो कणों के मध्य है वह आकाश है
जो दो श्वासों के मध्य है वह विश्राम है
जो इन सबमें व्याप्त है वही तो ‘तुम’ हो !

कविवार (My Sunday Poetry)

अपने सीने में जिंदा हम अब भी तेरा अहसास रक्खे हैं
झड़े जो तेरी जुल्फ से वो सूखे फूल अपने पास रक्खे हैं

तेरे आने की आहट हम कहीं उलझनों में सुन ही न पाएँ
कुछ इसलिए ही हम थोड़ी धीमी अपनी साँस रक्खे हैं

ये जो भाग-दौड़ है दुनिया की उसकी बस वजह एक है
लोग पा चुके जितना,उससे भी ज्यादा की आस रक्खे हैं

इन किनारों ने आती लहरों को पीछे लौटा दिया हमेशा
बड़े ही शौक से वे जिंदा अब तक अपनी प्यास रक्खे हैं

एक दिन होगा जरूर खतम ये दीये तले का सारा अँधेरा
बगल में एक दीया और जलेगा, हम ये विश्वास रक्खे हैं!

कविवार (My Sunday Poetry)

साँसों में अपनी हसरतों को छुपा लें कैसे
दिल के भीतर भला दिल को संभालें कैसे

तेरी नजरों के नजारें हैं इतने ज्यादा नशीले
हम इन नजरों से अपनी नजरें चुरा लें कैसे

एक मुद्दत से सपनों की हकीकत से जंग है
कोई सपनों को अपनी आँखों मे पाले कैसे

जिन्हें आंसुओं की कीमत मालूम है ही नहीं
उनके सामने हम अपने आँसू बहा लें कैसे

ओ आस्मां खुद को ऊँचा थोड़ा और कर लो
हम अपनी हद को इतने में ही समा लें कैसे !

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