कविवार (My Sunday Poetry)

कुछ अँधेरी गलियों ने किरणों का न एक भी तह देखा
कुछ ऐसी भी रातें है, जिन्होंने कभी नहीं सुबह देखा
इन जमी हुई परतों के भीतर आज किसी को जाना होगा
एक दीया वहाँ भी जलाना होगा।

कुछ नयनों के कोरकों में आशा की थोड़ी भी छाँह नहीं
कुछ मुरझाए चेहरों के भीतर उम्मीद नहीं,कोई चाह नहीं
इन बुझे हुए मन के कोनों में थोड़ा उत्साह जगाना होगा
एक दीया वहाँ भी जलाना होगा।

सागर पर ही बरसात हुई, मरुस्थल में कब सावन पहुँचे
जो आ न सकें जग तक उन तक न तुम पहुँचे,न हम पहुँचे
अपने अहसासों की सीमा को थोड़ा आगे बढ़ाना होगा
एक दीया वहाँ भी जलाना होगा।

दिन को आस थी सूरज की,रात के चाँद और तारे थे
कुछ ऐसे भी लम्हे आए जो बिना रोशनी के सहारे थे
अपने-अपनों से ही नहीं अब औरों से भी निभाना होगा
एक दीया वहाँ भी जलाना होगा।

कविवार (My Sunday Poetry)

इन रातों को कर दो अब थोड़ी-सी और भी लम्बी
सारी बातें कहने को ये छोटी-सी रात काफी नहीं है

सब के सामने मिल न सको तो छिपकर मिलते रहना
दिल मिलने के लिए बस एक मुलाकात काफी नहीं है

वो हमको बुरा समझें या हम उनको बुरा समझा करें
बातें खत्म करने के लिए इतनी-सी बात काफी नहीं है

दुनिया भर की मुश्किलें तुम्हारे नाम हो जाएँ तब भी
हौसला हार जाने को ये भी हालात काफी नहीं है

तुम्हारा साथ माँगा है मैंने यह जग जीतने के वास्ते
अपनी इन अधूरी परछाइयों का साथ काफी नहीं है!

कविवार (My Sunday Poetry)

कुछ दास्तां ऐसी भी हैं, जो कभी सुनायी न गयी
कुछ आँसू की बूँदें बनीं मगर आँखों से बहायी न गयी

हमने जुबां से कभी की नहीं तेरे इश्क की चर्चा कहीं
ये कसूर नजरों का था इससे सच्चाई छिपायी न गयी

फूलों को मसला भी तो वो हाथों में खुशबू छोड़ गए
सब कुछ लुटाने की फितरत उनसे भुलायी न गयी

उजड़े हुए घरों के बीच से रस्ते बना लेंगें ये लोग
अगर गिरी हुई दीवार ये जल्दी से उठायी न गयी

बस मुस्कुरा कर देख लो निभ जाएँगें रिश्ते सभी
ये रीत इतनी भारी न थी जो तुमसे निभायी न गयी।

कविवार (My Sunday Poetry)

यह आरती का दीप है, इसे बुझने न देना।

घने तिमिर को चीर कर एक लौ जली है
अग्निशिखा-सी उठने की एक आशा पली है
आस्था से पिघल कर कुछ प्रेमाश्रु बहे थे
उन्हें दीप में डाला तो ये तीव्र किरण मिली है

ये प्रथा है वन्दना की, इसे मिटने न देना
यह आरती का दीप है, इसे बुझने न देना।

अपने शब्दों से हम अपनी कितनी सुनाएँ
क्या वांछित, क्या गर्हित, ये सब कैसे बताएँ
जिस लोक तक प्रार्थना की नाद न पहुँची
संभव है वहाँ तक ये धवल ज्योतिपुंज जाएँ

ये गति है प्रगति की, इसे रुकने न देना
यह आरती का दीप है, इसे बुझने न देना।

विगलित-विषम विकृतियों पर यह विजय है
अस्थिर-चंचल वृत्तियों पर यह विजय है
दुर्मति-दुर्भाव के विरुद्ध रणभेरी-सी यह
मन के असम आवृत्तियों पर यह विजय है

इस प्रभा-प्रसार को सिमटने न देना
यह आरती का दीप है, इसे बुझने न देना।

कविवार (My Sunday Poetry)

इन मंजिलों के वास्ते ही तो सफर किया है
मैंने तुम्हारी आँखों में अपना घर किया है

ये जुल्फों के बसेरे और नजरों की गलियाँ
सच है, खुदा ने तुम्हें पूरा शहर किया है

अपनी किसी भी हार से हम हारे नहीं हैं
हमने हार का खुद को भी नहीं खबर किया है

दो मीठे बोल बोलो और यह जग जीत लो तुम
और है ही क्या जिसने जग पर असर किया है

मेरे ये शब्द कुछ बोलने की कोशिश नहीं हैं
मैंने बस अपनी खामोशियों को बाहर किया है!

कविवार (My Sunday Poetry)

ज्यादा फर्क तो है ही नहीं तेरे शहर और मेरे गाँव में…..

जिस रोटी को हमने अपनी किस्मत की मंजिल मानी है
तुम उसे खाकर शुरू करते हो अपनी किस्मत का सफर

ज्यादा फर्क तो है ही नहीं तेरे शहर और मेरे गाँव में !

जहाँ बड़ी चाची,छोटी काकी के गोद में पल हम हुए बड़े
वहाँ तुम्हारे बच्चे किताबों में रटते हैं रिश्तों के नाम भर

ज्यादा फर्क तो है ही नहीं तेरे शहर और मेरे गाँव में !

जिस साँझ की ढलती लौ में हम लौट आए अपने आँगनों में
उस शाम के बाद ही तुम निकले अपने घर से सड़कों पर

ज्यादा फर्क तो है ही नहीं तेरे शहर और मेरे गाँव में !

जहाँ बारिश की बूँदों से चमक जाते हैं चेहरे सब लोगों के
वहाँ बारिश तुम्हारे लिए है जैसे पाबंदियों का कोई कहर

ज्यादा फर्क तो है ही नहीं तेरे शहर और मेरे गाँव में !

जिन छोटी-छोटी खुशियों से हमने भरा जीवन का संदूक
तुम खुशी की प्यास में हो, उनसे बड़ी खुशियाँ छोड़ कर

ज्यादा फर्क तो है ही नहीं तेरे शहर और मेरे गाँव में !

कविवार (My Sunday Poetry)

उन यादों की गलियों में यूँ ही आना-जाना लगा रहा
नींद तो टूटी मगर सपनों का ताना-बाना लगा रहा

यूँ तो जीने की वजह, यहाँ जानते नहीं हैं जीने वाले
फिर भी दुनिया में जीने का कोई एक बहाना लगा रहा

पत्थर के महल,सोने के कलश कभी किसी के हुए नहीं
मगर जाने क्यूँ इनके पीछे जमाने से जमाना लगा रहा

हर साल घर के इन दीवारों के हमने रंग बदलते देखे हैं
मगर बरसों तक इनके ऊपर वही चित्र पुराना लगा रहा

कुछ थककर गिरे,कुछ गिरकर थके,ये कोई नई बात नहीं
पहुँचा वही जो अपनी धुन में बनकर दीवाना लगा रहा ।

कविवार (My Sunday Poetry)

गैरों को गम-ए-दिल कभी सुनाया नहीं करते
और अपनों से कोई राज छिपाया नहीं करते

तेरी जुल्फों ने पहले भी क्या कम सितम ढाए हैं
उन्हें छज्जे पर ऐसे आकर सुखाया नहीं करते

सौ फूलों को छोड़ हमने एक काँटे से दोस्ती की
सुना है,मौसम बदलने पर ये मुरझाया नहीं करते

थोड़ा और पाने की चाहत बुरी होती नहीं लेकिन
जो हासिल है पहले से, उसे गंवाया नहीं करते

इस गली से गुजरने वाले हर घर का हाल जानते हैं
यूँ बेवजह खिड़कियों पर पर्दे लगाया नहीं करते

फिर अगली शाम यही दीया करेगा रौशन घर को
सूरज उग जाने भर से दीये को भुलाया नहीं करते।

कविवार (My Sunday Poetry)

तेरे-मेरे मिलने की बस इतनी-सी कहानी थी
एक प्यासा सागर था, एक नदिया दीवानी थी
फिर और हुईं जो बातें, वे सब हो ही जानी थीं
एक प्यासा सागर था, एक नदिया दीवानी थी।

ये पुष्प-लता,पवन के संग यूँ ही नहीं नाची थी
इन दोनों के बीच कोई पहचान पुरानी थी
एक प्यासा सागर था, एक नदिया दीवानी थी।

बिना वजह ये चाँद रात के संग नहीं जागा था
उसको अपने दिल की कोई बात बतानी थी
एक प्यासा सागर था,एक नदिया दीवानी थी।

अनजान डगर पर बेवजह चल दिए तो ये जाना
ये गलियाँ तो हमें जन्मों से जानी-पहचानी थीं
एक प्यासा सागर था, एक नदिया दीवानी थी।

तेरी आँखों के लहरों से हमने कब बचना चाहा
हमें तो इनमें ही डूब कर सीपियाँ चुरानी थीं
एक प्यासा सागर था, एक नदिया दीवानी थी।

कविवार (My Sunday Poetry)

इतनी जल्दी कोई ख्याल बना लेना न मेरे बारे में तुम
अभी इस दिल की पूरी दास्तां तुमको सुनाया ही नहीं

एक लम्हा ऐसा मिलता कि तुम्हें कह देता सारी बातें
बरस पर बरस गुजरे मगर लम्हा कभी आया ही नहीं

तुम वफा न सही कोई सजा ही दे देते गुनाह-ए-प्यार का
हम ये गुनाह करते रहे और तुमने सजा सुनाया ही नहीं

चलने की ऐसी फितरत अपने मन मे हमने बना ली है कि
खुद को भी हमने अपनी मंजिल का पता बताया ही नहीं

केवल खुद को छोड़ बस इसलिए सारे पराए लगते हैं हमें
हम अपने में रहे जीते,किसी को अपना बनाया ही नहीं !

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें