कुछ अँधेरी गलियों ने किरणों का न एक भी तह देखा
कुछ ऐसी भी रातें है, जिन्होंने कभी नहीं सुबह देखा
इन जमी हुई परतों के भीतर आज किसी को जाना होगा
एक दीया वहाँ भी जलाना होगा।
कुछ नयनों के कोरकों में आशा की थोड़ी भी छाँह नहीं
कुछ मुरझाए चेहरों के भीतर उम्मीद नहीं,कोई चाह नहीं
इन बुझे हुए मन के कोनों में थोड़ा उत्साह जगाना होगा
एक दीया वहाँ भी जलाना होगा।
सागर पर ही बरसात हुई, मरुस्थल में कब सावन पहुँचे
जो आ न सकें जग तक उन तक न तुम पहुँचे,न हम पहुँचे
अपने अहसासों की सीमा को थोड़ा आगे बढ़ाना होगा
एक दीया वहाँ भी जलाना होगा।
दिन को आस थी सूरज की,रात के चाँद और तारे थे
कुछ ऐसे भी लम्हे आए जो बिना रोशनी के सहारे थे
अपने-अपनों से ही नहीं अब औरों से भी निभाना होगा
एक दीया वहाँ भी जलाना होगा।