कविवार (My Sunday Poetry)

उड़ते हैं,दूर जाते हैं फिर लौट आते हैं घोंसलों में
इन परिंदों का अपना कभी ये आस्मां नहीं होता

हमारे और तुम्हारे बीच में एक दर्द का रिश्ता है
जो दिल में दर्द न होता तो कोई रिश्ता नहीं होता

हम शुक्रमंद हैं हमेशा अपनी सारी गलतियों के
जो वे गलतियाँ न होतीं तो ये तजुर्बा नहीं होता

हमें मिल न सको तब भी जरा मिलते-जुलते रहो
कभी-कभी यूँ मिल लेने से कोई घाटा नहीं होता

दो छोर को मिलने के लिए एक रास्ता जरूरी है
लोग मिलते नहीं जब तक कोई जरिया नहीं होता।

कविवार (My Sunday Poetry)

इन कोहरों के बीच एक धुँधला रस्ता दिखता है
जो जाता है सीधा सूर्य की पहली किरण तक

मैंने शब्दों के फैलाव को देखा है छूकर हाथों से
वो पहुँच ही पाएँ न कभी मौन के आवरण तक

तुम अपने ह्रदय में जैसी तरंगें उठाया करते हो
वही भाव पसर जाता है धरती तक, गगन तक

श्वासों में जब तक प्रेम की मदिर मिठास न घोलो
तब तक वो पहुँचेगीं कैसे मन में बसे घुटन तक

वो पूछते हैं ये प्रयत्न यूँ ही कब तक करते रहोगे
मैं बोलता हूँ, अपने विजय तक या मरण तक ।

कविवार(My Sunday Poetry)

लम्हों के सिलसिलों में कुछ भी न ठहर पाएगा
वो भी गुजर गया था, ये भी गुजर जाएगा

तुमने जो बातें कही, वो खत्म नहीं होंगी कभी
बातों में जो असर था,दूर तक वो असर जाएगा

भीड़ में अपना चेहरा मिलाने से पहले सोच लो
तू अब से बस भीड़ का ही हिस्सा नजर आएगा

हर प्यास की यहाँ एक आखिरी तारीख होती है
सब्र रख, तेरे हलक में भी समंदर उतर जाएगा

चिंगारियाँ उड़ाने की अब और न कोशिश करो
तेरा शौक पूरा होगा,किसी का घर उजड़ जाएगा

इन रास्तों पर बस तेरा चलते रहना ही बहुत है
मंजिल न भी मिली तो तेरा क्या बिगड़ जाएगा!

कविवार (My Sunday Poetry)

कोई और वजह है ही नहीं तुम्हारी शिकायत करने की
तुम कुछ ज्यादा ही सुंदर हो बस इतनी-सी शिकायत है

मैं तुम्हें कैसे बताऊँ तोल कर अपनी चाहत की तासीर को
बस जिंदगी से थोड़ी-सी ज्यादा है,ये जो तुमसे मोहब्बत है

एक दूजे को देखकर इन दिनों वो हँसते हैं कुछ ज्यादा ही
हमे यकीन है दोनों के बीच में बहुत ही गहरी नफरत है

न आग लगी, न चिंगारी, ये शहर फिर भी जल गया यूँ ही
वो जो उड़ती-फिरती बातें थीं,ये सब उसकी ही करामत है

अब और ये न कहना कि इसने वो किया, उसने ये किया
ये तेरी जिंदगी जो कुछ भी है, वो बस तेरे ही बदौलत है !

कविवार (My Sunday Poetry)

जीते-जीते जब हम जीने लगे तब ये जाना
इस दुनिया को हम दुनिया समझ लिए हद से ज्यादा।

हार आखिर न थी, जीत अंतिम न थी
दुःख रहा भी नहीं, सुख बसा भी नहीं
फिर भी जाने क्यूँ इनकी वजह से यूँ ही
हम रो लिए हद से ज्यादा, हँस लिए हद से ज्यादा।

तेरे घर का पता पूछते – पूछते हम
अपने घर का ही देखो पता भूल बैठे
अपनी बेफिक्री में इतने बेफिक्र थे हम
कि इन अजनबी राहों पर चल लिए हद से ज्यादा।

तारे चू कर गिर गए धूप की दाह से
और साँझ की परछाईं धूप को खा गई
दोष सपनों का न था, दोष आँखों का था
इन आँखों ने खुद में सपने भर लिए हद से ज्यादा।

इस कहानी का अंत कभी होना नहीं है
कल जहाँ ठहरी थी,फिर वहीं से चलेगी
जिंदगी इतनी ज्यादा जिंदगी थी ही नहीं
यूँ ही जिंदगी को हम जिंदगी कर लिए हद से ज्यादा।

कविवार (My Sunday Poetry)

तुमने मेरे भीतर जितना कुछ पाना चाहा है
हम उससे ज्यादा तुझमे अपना खो कर बैठे हैं

एक हादसा भूलने को हमें दूसरा हादसा चाहिए
हम इन हादसों के इतने आदी हो कर बैठे हैं

इस दरिया के पार जाने की जिन्हें इतनी पड़ी है
वो पहले से अपनी नाव खुद ही डुबो कर बैठे हैं

ये चेहरे जो बयां करते हैं,ये इन चेहरों में नहीं होते
ये लोग बड़े सयाने हैं, ये चेहरों को धो कर बैठे हैं

तुम समझो, न समझो, मुझको अपनी हकीकत
हम तुम्हें सपना समझ आँखों में सँजो कर बैठे हैं!

कविवार (My Sunday Poetry)

यूँ तो शिकायतें हमें पहले भी कम न थीं
मगर सुना है, तेरे शहर की हवा अब ज्यादा खराब है

इन चेहरों पर पहले से ही जाने कितने नकाब थे
मगर इन दिनों नकाबों के ऊपर एक और नकाब है

इस भागदौड़ की कोई मंजिल दिखी नहीं अब तक
कभी पहुँचना कहीं नहीं है, बस रस्ते बेहिसाब हैं

थोड़ी हवा,थोड़ा पानी खोजेगीं आने वाली पीढ़ियाँ
फिर भी ये लोग बस पैसे जोड़ने के खातिर बेताब हैं

जवाब मिला ही नहीं यहाँ किसी भी सवाल का
इसलिए जो कुछ भी है यहाँ, सब बहुत लाजवाब है !

कविवार (My Sunday Poetry)

हर बार किसी भरोसे की कोई जरूरी वजह नहीं होती
आसमां रंग नहीं बदल लेता है मौसम के बदल जाने से

इन समंदरों में कहाँ दम था कि बढ़ पाएँ अपने कगारों से
ये दुनिया तो डूबती है बस दो बूँद आँसू के पिघल जाने से

तेरा प्यार एक भरम था, ये हमें मालूम था उस वक्त भी
मगर हमें मिल ही क्या जाता उस भरम के निकल जाने से

हम बिगड़े भी तो क्या बिगड़े,चर्चाएँ होने लगीं हैं हमारी
वे नाम भी न लेंगे हमारा,हमारी नीयत के सँभल जाने से

हर हाल में अपनी आँखों में आशा की किरणें रखो जिंदा
अँधेरा होता नहीं इस जहां में बस सूरज के ढल जाने से !

कविवार (My Sunday Poetry)

जिंदगी ऐसे जिओ कि कोई कहानी बन जाए
पर्वत पिघल जाए मोम-सा और आग पानी बन जाए

यूँ तो इस रेत पर कितने पैरों के निशां बिगड़े-बने
पर तू ऐसा कदम रख कि पत्थर पर निशानी बन जाए

तेरे हौसलों की हनक कुछ ऐसे उड़े इस संसार में
तू ही जमीं के जर्रों में हो, तू ही आसमानी बन जाए

अपनी जिंदगी बनाने में तो मशगूल हैं ये सारे लोग
मगर तेरे दम से औरों की भी जिंदगानी बन जाए

सारी हुनर,सारी ताकत तुझमे छिपी है, तू जान ले
बस कुछ कर ऐसा कि ये दुनिया तेरी दीवानी बन जाए।

कविवार (My Sunday Poetry)

जमीं के हर टुकड़े के हिस्से में आसमान नहीं होता
इस दुनिया में सब कुछ इतना आसान नहीं होता

तेरी गली का पता मैं कभी पूछता नहीं इन लोगों से
अगर उस गली के छोर पर तेरा मकान नहीं होता

माना हम अजनबी हैं मगर हमें गैर न समझो तुम
हर अजनबी इस दुनिया में अनजान नहीं होता

हमें लगा ये इम्तिहान आखिरी होगा मगर अब जाना
ये जिंदगी है, यहाँ कोई आखिरी इम्तिहान नहीं होता

तुम्हें मुकाम चाहिए तो कहीं और का रुख कर लो
ये रास्ता है प्रेम का, इसमें कोई मुकाम नहीं होता !

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