हर ओर सिहरन है, रुदन है, भय है और संशय है
भला यह कैसी विश्व विजय है !
दो कदम बढ़े थे आगे
अब चार कदम पीछे हैं
कल अंबर के ऊपर थे
आज धरती के नीचे हैं
जिन आँखों में राजदम्भ था, आज वहाँ विस्मय है
भला यह कैसी विश्व विजय है !
इच्छाओं के अन्वेषण में
कुछ इतनी दूर चले आएँ
कि ‘उसकी’ क्या इच्छा थी
हम ये सोच तक नहीं पाएँ
जो दिशा अस्त की थी, हमने सोचा उधर उदय है
भला यह कैसी विश्व विजय है !
जो आज हमसे इतने विलग हैं
वो पहले से ही मन से बँटे थे
उस तरु पर कैसे फल आएँगे
जिनके जड़ पहले ही कटे थे
जहाँ कल राज-रंग-वैभव था,आज खड़ा वहाँ प्रलय है
भला यह कैसी विश्व विजय है !