कविवार (My Sunday Poetry)

हर ओर सिहरन है, रुदन है, भय है और संशय है
भला यह कैसी विश्व विजय है !

दो कदम बढ़े थे आगे
अब चार कदम पीछे हैं
कल अंबर के ऊपर थे
आज धरती के नीचे हैं

जिन आँखों में राजदम्भ था, आज वहाँ विस्मय है
भला यह कैसी विश्व विजय है !

इच्छाओं के अन्वेषण में
कुछ इतनी दूर चले आएँ
कि ‘उसकी’ क्या इच्छा थी
हम ये सोच तक नहीं पाएँ

जो दिशा अस्त की थी, हमने सोचा उधर उदय है
भला यह कैसी विश्व विजय है !

जो आज हमसे इतने विलग हैं
वो पहले से ही मन से बँटे थे
उस तरु पर कैसे फल आएँगे
जिनके जड़ पहले ही कटे थे

जहाँ कल राज-रंग-वैभव था,आज खड़ा वहाँ प्रलय है
भला यह कैसी विश्व विजय है !

कविवार (My Sunday Poetry)

भरोसे की हद अब कहो, क्या बताएँ तुम्हें हम
खुद से भी पूछा न तुम्हें अपना बनाने से पहले

ये तमन्ना है, तेरी मदहोशी में यूँ ही डूबे रहे हम
ये दुनिया ही खत्म हो जाए होश आने से पहले

हाथ मिलाना,गले लगना ये काम आसां बड़ा है
वो बस ठिठक जाते हैं नजरें मिलाने से पहले

इन अँधेरों ने भी राहें तकी थीं दिन भर शाम की
ये बात याद रखना हमेशा दीया जलाने से पहले

दिल में जो कुछ है, वो सब कह दो बस अभी ही
गुजर न जाए ये कारवाँ,सब कुछ बताने से पहले

तुमने जाना होगा मुझको इस जमाने में मिल कर
मगर हम तो थे बस तुम्हारे इस जमाने से पहले ।

कविवार (My Sunday Poetry)

इसी गली में धूप खिली,छोर पर एक उगा सितारा भी था
जो शहर जलाया तुमने, वो शहर तुम्हारा भी था।

इन खून के तरल धारों से
जिसने अपनी प्यास बुझाई
इन तेजाबों की बारिश में
जिसने सीने में ठंडक पाई

उनसे कह दो जो जितना जीता, वह उतना हारा भी था
जो शहर जलाया तुमने, वो शहर तुम्हारा भी था।

इन बेबस चीखों को सुन
यह कौन मनुज हँसता है
इस उजड़े चमन को देख
जाने किसका घर बसता है

इन सुनसान बस्तियों में कभी मेले का नजारा भी था
जो शहर जलाया तुमने, वो शहर तुम्हारा भी था।

कहीं तो होगी कोई जड़ घृणा
यूँ ही ये सूरत-ए-हाल नहीं है
जो सब कुछ माटी में मिला दे
वो इस माटी का लाल नहीं है

जिसने जिसे मारा उसने कभी उसका नाम पुकारा भी था
जो शहर जलाया तुमने, वो शहर तुम्हारा भी था।

कविवार (My Sunday Poetry)

कोशिश की है दिल से तो उसका असर भी होगा
प्यास इतनी गहरी है तो सामने समंदर भी होगा

दूसरों के घर की आग में यूँ रौशनी खोजने वालों
ये मत भूलो कि किसी बारी में तेरा घर भी होगा

उन्हें इतना अपना माना कि हम सोच तक न पाएँ
कि वो दुश्मन हमारा एक रोज इस कदर भी होगा

यूँ मुश्किलों से भरे पतझड़ जब हमने झेले हैं इतने
तो हमारे हिस्से में कभी बहारों का मंजर भी होगा

हम आखिर उनको क्यूँ तलाशें, वो हमें ढूँढ़ ही लेंगें
जब सफर पर हैं तो जरूर कोई हमसफर भी होगा !

कविवार (My Sunday Poetry)

तुम सांझ बनकर इन दहकती गलियों में आ जाना
मैं रात बनकर तुम्हें अपनी इन बांहों में छुपा लूंगा

इन जागती हुई सच्चाइयों के रस्ते बहुत ही लम्बे हैं
मैं सपनों के रस्ते से तुमको पल भर में बुला लूंगा

रोज वो मिलते हैं मगर अब तक हाल भी नहीं पूछा
सोचा है,आज बिन पूछे ही उन्हें सब कुछ बता दूंगा

इन पर्दों ने हमें हमारी गलियों से जुड़ने दिया नहीं
आज इन पर्दों को ही मैं अपनी चौखट से हटा दूंगा

तुम बेवजह मुझसे नफरत करो,ये इजाजत है तुम्हें
ये जिद है मेरी, मैं भी मोहब्बत तुम्हें बेवजह दूंगा ।

कविवार (My Sunday Poetry)

कुछ सामान अभी भी बंद हैं दिल के संदूकों के भीतर
ये मुमकिन नहीं कि तुम खरीद लो सब कुछ बाजारों से

हमने चांद पाने की कोशिश में इसलिए ये हाथ बढ़ाए
मुट्ठी भर ही जाएंगी कम-से-कम इन‌ बिखरे सितारों से

न‌ फुर्सत है,न सब्र है कि कोई सुनेगा बात तुम्हारे मन की
इसलिए इन दिनों दिल की बातें हम कर लेते हैं दीवारों से

ये समंदर उन्हें ही पहनाता है आगे बढ़कर फेनों की माला
जो बहते हैं चीरकर बीहड़ों को और टकराते हैं पहाड़ों से

ये बात और है कि हर ऊंचाई जाती है आसमान की ओर
मगर ऊंचाई की दास्तां शुरू होती है जमीं के गुबारों से !

कविवार (My Sunday Poetry)

मैंने लाख कोशिश की तुम्हें कहीं जाहिर न होने दूं
मगर मेरी हर दास्तां में जाने क्यूं तेरा नाम आता है

मुझसे बोलो, न बोलो बस हंस कर देख ही लो तुम
तुम्हारे यूं देखने भर से ही दिल को आराम आता है

जो फूल गिर गया जमीन पर उसे बेमोल न समझो
टूटा हुआ फूल भी एक माला गूंथने के काम आता है

आज तेरी कहानी है तो कल उसकी भी कहानी होगी
यहां हर कहानी का एक न एक दिन अंजाम आता है

वो दीया रात भर लड़ता है जब इन‌ बेरहम हवाओं से
तब जाकर सुबह सूरज का जगमग पैगाम आता है !

कविवार (My Sunday Poetry)

‌संध्या को इन किरणों ने रक्तिम गुलाबी कर दिया
भोर में स्वर्णिम आभा ने कोष नभ का भर दिया
न रजत की रश्मियां,न मणियों की मनुहार मांगूं
बस मुझे आज थोड़ा रंग बासंती कर देना।

ओस की मधु-बिंदुओं के भीतर उत्तप्त आग देखा
मैंने पराजय की थकन में विजय का अनुराग देखा
न निराशा का धुंधलका,न आशा की चकाचौंध चाहूं
बस मुझे आज थोड़ा रंग बासंती कर देना।

नयनों के पानी के ऊपर सपनों के लेख ठहरे हुए हैं
जो स्वप्न जितने अधूरे हैं उतने अधिक गहरे हुए हैं
न अपूर्णता की टीस और न संपूर्णता का दंभ मांगूं
बस मुझे आज थोड़ा रंग बासंती कर देना।

इनसे जुड़ी, उनसे जुड़ी सौ-सौ कहानी बन गयी
जितनी घड़ियां जी चुका वो सब निशानी बन गयी
न सफर की वेदना,न तो रुकने का विश्राम मांगूं
बस मुझे आज थोड़ा रंग बासंती कर देना।

कविवार (My Sunday Poetry)

हम तेरी मोहब्बत में तेरे हो गए हैं इतना ज्यादा
कि अब आईने में भी तेरी ही सूरत नजर आती है

इन आँखों में नींद वाली कभी रात नहीं आती है
सुना है,तेरी चौखट पर ही अब शाम ठहर जाती है

जिंदगी के लम्हे कभी मुश्किल न थे जीने के लिए
जाने क्यों ये लम्हे समझने में सदियाँ गुजर जाती हैं

चाँद लुटाता रहा खुद चाँदनी टुकड़ा-टुकड़ा टूट कर
पूनम की रात में उसकी झोली फिर से भर जाती है

जिंदगी से जिंदगी भर बस मुस्कुराने का वादा कर लो
फिर देखना, ये जो तकदीर है, वो कैसे सँवर जाती है !

कविवार (My Sunday Poetry)

हाँ,ये सच है कि गाँव के आँगन में एक दीवार पड़ चुकी है
और दोनों हलकों की सारी जमीन बंट चुकी है
बराबर-बराबर
मेरे और तुम्हारे मकान भी अब अलग-अलग हैं
मगर भाई अब भी तू मेरा ही है, मैं तेरा ही हूँ।

तुम उस शहर में बस गए,मैं इस शहर में बस गया
तुम्हारे बच्चे सिर्फ तुम्हारे हैं और मेरे बच्चे सिर्फ मेरे
हमने बदल लिए हैं तरीके होली और दिवाली मनाने के
अब हम त्योहारों पर एक रंग के कपड़े भी नहीं पहनते
मगर भाई अब भी तू मेरा ही है, मैं तेरा ही हूँ।

याद है वो बचपन, जब माँ एक रोटी तुझे देती थी
दूसरी मुझको और फिर तीसरी तुझे
हम होड़ करते थे अपनी रोटियाँ पहले खत्म करने की
मेरा बस्ता तू , तेरा मैं उठाता था
तेरी जीत मेरी भी जीत थी और तेरी हार मेरी भी हार
अब दोनों के जीत-हार के मायने भले बदल गए हों
मगर भाई अब भी तू मेरा ही है, मैं तेरा ही हूँ।

अब जब भी किसी कोने में बैठा होता हूँ तो जानता हूँ
कि तुम नहीं आकर बोलोगे ‘धप्पा’
और पड़ोस के सुरेन्दर चाचा से ऊँचा घर बनाने का सपना
नहीं कर सकते हम पूरा संग-संग
शायद रिश्ते भी रेलगाड़ी की तरह हैं
कुछ आगे बढ़ो तो कुछ पीछे छूट जाते हैं
ये सच है या नहीं, ये नहीं जानता
मगर भाई अब भी तू मेरा ही है, मैं तेरा ही हूँ।

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